वो रहनुमा ‘दोस्त’ बनकर,
हमसे मिलते रहे
और हम उन्हें,
अपना हमदम समझते रहे
चलते-चलते,
ये हमें अहसास न हुआ
कि वो दोस्त बनकर,
दुश्मनी निभा रहे हैं
एक-एक बूंद ‘जहर’,
रोज हमको पिला रहे हैं
अब हर कदम पर देखता हूं,
उनका ‘हुनर’
हर ‘हुनर’ को देखकर ,
अब सोचता हूं
‘दोस्ती’ से दुश्मनी ज्यादा भली थी
तुम दुश्मन होते,
तो अच्छा होता
कम-से-कम मेरी पीठ में,
खंजर तो न उतरा होता
संतोष कर लेता,
देखकर खरोंच सीने की
अब चाहूं तो कैसे देखूं,
वो निशान पीठ के
अब ‘उदय’ तुम ही कुछ कहो
किसे ‘दोस्त’, और दुश्मन किसे कहें।